Prabhat Times
Jalandhar जालंधर। भारत के इतिहास में कुछ क्षण ऐसे दर्ज हैं, जो केवल बीती घटनाएँ नहीं, बल्कि मानवीय सभ्यता की आत्मा को परिभाषित करने वाले मील के पत्थर हैं।
24 नवंबर 1675 का दिन ऐसा ही एक दिन है-जब सिख धर्म के नौवें गुरु, श्री गुरु तेग बहादुर जी ( हिंद की चादर), ने धर्म, मानवता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा के लिए अपना शीश अर्पित कर दिया।
आज, जब हम उनका शहीदी दिवस मनाते हैं, तो यह स्मरण करना अनिवार्य हो जाता है कि श्री गुरु तेग बहादुर जी का संघर्ष एक विशुद्ध मानवीय संघर्ष था।
17वीं शताब्दी में मुगल सम्राट औरंगजेब द्वारा व्यापक स्तर पर जबरन धर्म परिवर्तन के प्रयास किए जा रहे थे।
विशेष रूप से कश्मीर के हिंदुओं और पंडितों पर अत्याचार बढ़ गए थे। अपने धर्म और सांस्कृतिक पहचान को बचाने के लिए वे दिल्ली पहुँचे और गुरु तेग बहादुर जी से सहायता की अपील की।
गुरु जी ने न केवल उनकी पीड़ा को समझा, बल्कि यह भी पहचाना कि यह लड़ाई धार्मिक पहचान से अधिक मानव गरिमा और मूल अधिकारों की लड़ाई है।
गुरु साहिब ने न केवल उनकी बात सुनी, उन्होंने कहा कि यदि मेरा बलिदान इस अत्याचार को रोक सकता है, तो मैं स्वयं को कुर्बान करने के लिए तैयार हूँ।
औरंगजेब के दबाव और प्रताड़ना के सामने श्री गुरु तेग बहादुर जी न झुके, न समझौता किया। यह दृढ़ता केवल धार्मिक साहस की मिसाल नहीं थी; यह उस नैतिक शक्ति का प्रदर्शन था जो बताती है कि सत्ता भले ही शरीर को वश में कर ले, पर विचार और आत्मा को कभी नहीं झुका सकती।
चांदनी चौक में उनका बलिदान सत्ता और अहंकार के विरुद्ध सत्य और विवेक की विजय का प्रतीक बन गया। आज उसी स्थान पर खड़ा गुरुद्वारा शीश गंज साहिब उस ऐतिहासिक प्रतिरोध का जीवंत स्मारक है।
इस वर्ष श्री गुरु तेग बहादुर जी की शहादत के 350 साला (350वीं वर्षगांठ) को विशेष रूप से मनाया गया।
देश और विदेश के गुरुद्वारों, संस्थानों और समुदायों ने उनके उपदेशों एवं आदर्शों को जन-जन तक पहुँचाने के लिए कार्यक्रम आयोजित किए।
कीर्तन, नगर कीर्तन, सेमिनार, ऐतिहासिक प्रदर्शनियों और मानव सेवा के अनेक कार्यों के माध्यम से गुरु साहिब को याद किया गया।
यह अवसर इस बात का प्रतीक बना कि उनके सिद्धांत समय के किसी एक युग तक सीमित नहीं, बल्कि आज भी उतने ही प्रासंगिक और प्रेरणादायी हैं।
श्री गुरु तेग बहादुर जी का बलिदान केवल सिख धर्म का गौरव नहीं है, बल्कि यह पूरे विश्व के लिए एक संदेश है कि धर्म की स्वतंत्रता मानव अधिकारों का मूल है।
उनका जीवन और शहादत हमें सिखाता है कि सत्य और न्याय के लिए खड़ा होना साहस का सर्वोच्च रूप है, मानवीय मूल्य किसी भी सत्ता या भय से बड़े होते हैं, धार्मिक स्वतंत्रता हर व्यक्ति का प्राकृतिक अधिकार है, अत्याचार और दमन का विरोध करना ही धर्म का वास्तविक रूप है।
आज जब विश्व अनेक धार्मिक तनावों और असहिष्णुता से जूझ रहा है, श्री गुरु तेग बहादुर जी की शहादत हमें यह याद दिलाती है कि किसी भी राष्ट्र की मौलिक शक्ति उसकी विविधता को स्वीकारने और संरक्षित रखने में है।
भारत का संविधान भी इसी सिद्धांत पर आधारित है। किंतु केवल कानून काफी नहीं-समाज में जागरूकता, सहिष्णुता और मानवाधिकारों के प्रति संवेदनशीलता उतनी ही आवश्यक है।
श्री गुरु तेग बहादुर जी का बलिदान हमें यह सिखाता है कि धर्म वही है जो दूसरों की स्वतंत्रता की रक्षा करे।
उनकी शहादत यह संदेश देती है कि सत्य और न्याय के लिए खड़ा होना ही किसी भी सभ्य समाज का नैतिक दायित्व है।
आज जब दुनिया वैचारिक ध्रुवीकरण और कट्टरता के दौर से गुजर रही है, श्री गुरु तेग बहादुर जी का संदेश पहले से कहीं ज्यादा प्रासंगिक हो उठा है।
यह प्रतिज्ञा लेने का भी दिन है कि मानवता, शांति और धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा हर युग में सर्वोपरि रहेगी।
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