Prabhat Times
नई दिल्ली। कांग्रेस (Congress) से सियासी पारी का आगाज कर राजनीति (Politics) में पहचान बनाने वाले युवा चेहरे तितर-बितर होने लगे हैं. कांग्रेस में राजनीतिक भविष्य नहीं दिखा तो पहले ज्योतिरादित्य सिंधिया और अब जितिन प्रसाद ने पार्टी का साथ छोड़कर बीजेपी का दामन थाम लिया. हालांकि, सवा साल के बाद भी सिंधिया पहले की तरह सियासी मुकाम हासिल नहीं कर सके, जिसके लिए वो बेचैन हो रहे हैं. वहीं, कांग्रेस में बिखरते युवा नेतृत्व के बीच सचिन पायलट और नवजोत सिंह सिद्धू पार्टी में रहते हुए अपने हक की लड़ाई बुलंद किए हुए हैं. ऐसे में सियासत के ये चार युवा चेहरे इन दिनों चर्चा के केंद्र में बने हुए हैं.
जितिन प्रसाद की भूमिका बीजेपी में कैसी होगी?
कांग्रेस के दिग्गज नेता जितेंद्र प्रसाद के बेटे व पूर्व केंद्रीय मंत्री जितिन प्रसाद पिछले लोकसभा चुनाव के समय से ही बीजेपी में जाने को तैयार थे, लेकिन प्रियंका गांधी के सियासत में आने के बाद हालात बदलने की उम्मीद में दो साल ठहर गए. पर आखिरकार अपने राजनीतिक भविष्य की खातिर विचाराधारा के सियासी आवरण को उतार फेंक बुधवार को जितिन प्रसाद ने बीजेपी का दामन थाम लिया. जितिन प्रसाद द्वारा बीजेपी की सदस्यता ग्रहण करने का यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्रदेव सिंह ने स्वागत किया है और उन्होंने कहा, जितिन के आने से प्रदेश में बीजेपी को मजबूती मिलेगी.
जितिन के आने से बीजेपी कितनी मजबूत होगी यह तो वक्त ही बताएगा, लेकिन कांग्रेस को 2022 के चुनाव से पहले बड़ा झटका जरूर लगा है. जितिन के दादा और पिता सहित तीन पीढ़ियों का कांग्रेस से नाता रहा है और सभी गांधी परिवार के करीबी रहे हैं. राहुल गांधी की टीम के जितिन अहम सदस्य थे, जिसका नतीजा था कि पहली बार संसद चुने जाने के साथ ही केंद्र में मंत्री बना दिए गए और मनमोहन सिंह की दोनों सरकारों में कैबिनेट का हिस्सा रहे थे. राहुल का साथ उन्होंने ऐसे समय में छोड़ दिया जब उन्हें सबसे ज्यादा इन्हीं नेताओं की जरूरत थी. सवाल उठता है कि बीजेपी में जितिन की क्या भूमिका होगी.
ज्योतिरादित्य सिंधिया को बीजेपी में क्या मिला?
पूर्व केंद्रीय मंत्री और राज्यसभा सदस्य ज्योतिरादित्य सिंधिया को कांग्रेस छोड़कर बीजेपी का दामन थामे हुए सवा साल हो रहे हैं, लेकिन अभी तक सिर्फ राज्यसभा सदस्य ही हैं. राज्यसभा तो कांग्रेस में रहते हुए भी मिल सकती थी. यही वजह है कि सिंधिया और उनके समर्थक दोनों में स्वाभाविक बेचैनी नजर आ रही है. सिंधिया कांग्रेस में रहते हुए पहली पंक्ति के नेता बन गए थे, लेकिन बीजेपी में वह मुकाम हासिल नहीं कर सके. सिंधिया इस समय मध्य प्रदेश के दौरे पर हैं और उन्होंने बुधवार को न केवल पार्टी संगठन के पदाधिकारियों से मिले बल्कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और संघ कार्यालय जाकर मध्य क्षेत्र के प्रचारक दीपक विसपुते से भी मुलाकात की.
सिंधिया की एक दिन में एक साथ संगठन, सरकार और संघ के पदाधिकारियों से हुई मुलाकात के बाद सियासी पारा पर चढ़ गया है. इतना ही नहीं उन्होंने शिवराज कैबिनेट में शामिल अपने समर्थक मंत्री और विधायकों के साथ भी बैठक की. ऐसे में अटकलें लगाई जा रही हैं कि आखिरकार इन सियासी मुलाकातों के मायने क्या हैं. इसके पीछे वजह यह है कि सवा साल से सिंधिया केंद्र में मंत्री बनने की उम्मीद लगाए हुए बैठे हैं, लेकिन अभी तक जगह नहीं मिली है. ऐसे में अब संगठन से लेकर संघ तक के जरिए सियासी मुकाम हासिल करने की जद्दोजहद में जुट गए हैं.
सचिन पायलट कहीं फिर न बन जाए बागी?
राजस्थान में विद्रोह के मुहाने से लौटे सचिन पायलट से किए गए वादे 10 महीने बाद भी पूरे नहीं हुए हैं, जिसके चलते एक बार भी बगावत की चिंगारी सुलगने लगी है. पायलट गुट के विधायक वेद प्रकाश सोलंकी ने कहा कि कांग्रेस हाईकमान ने सचिन पायलट के साथ जो वादे किए थे, उन्हें अभी तक पूरा नहीं किया गया है. पायलट के समर्थन में कांग्रेस महासचिव भंवर जितेंद्र सिंह भी आ गए हैं. इतना ही नहीं पायलट खुद भी कह चुके हैं कि जो वादे किए गए हैं, उन्हें अब जल्द से जल्द पूरा किया जाए.
पिछले साल अगस्त में सचिन पायलट के नेतृत्व में राजस्थान के कई कांग्रेसी विधायकों ने सीएम अशोक गहलोत के खिलाफ बगावत का झंडा उठा लिया था. गहलोत सरकार पर संकट के बादल मंडराने लगे थे और राजनीतिक अस्थिरता को देखकर बीजेपी भी सक्रिय हो गई थी, लेकिन कांग्रेस हाईकमान के दखल के बाद पायलट मान गए थे. पायलट-गहलोत के बीच वर्चस्व की जंग खत्म करने के लिए एक सुलह कमेटी बनी, लेकिन अभी तक न तो पायलट के जिन सहयोगियों को मंत्री पद से हटाया गया उन्हें दोबारा सरकार में वापस लिया गया और न ही सुलह कमेटी के सामने रखी गई मांगों पर कार्रवाई हुई. ऐसे में पायलट और उनके सहयोगियों के सब्र का बांध टूट रहा है और फिर से बगावत के सुर उठने लगे हैं.
सिद्धू ने अपने हक के लिए उठाया बगावत का झंडा
पांच साल पहले नवजोत सिंह सिद्धू बीजेपी का दामन छोड़कर कांग्रेस का हाथ थाम कर गांधी परिवार के करीबी नेताओं में शामिल हो गए. पंजाब में सरकार बनी तो कैप्टन की कैबिनेट का अहम हिस्सा बने, लेकिन जल्द ही मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के साथ उनके छत्तीस के आंकड़े हो गए हैं और सिद्धू को मंत्री पद भी छोड़ना पड़ गया. 2022 विधानसभा चुनाव से ठीक पहले पंजाब कांग्रेस में वर्चस्व की लड़ाई फिर से छिड़ गई, जिसके चलते पार्टी हाईकमान ने दोनों ही गुटों के नेताओं के दिल्ली तलब किया और उनके बीच सुलह समझौता करने की कवायद में है, लेकिन कांग्रेस वर्तमान और भविष्य के लीडरशिप के बीच उलझा हुआ है.
बता दें कि 2019 के लोकसभा चुनाव के ठीक बाद नवजोत सिंह सिद्धू ने कैप्टन से तनातनी के बीच मंत्री पद से इस्तीफा दिया तो इसके बाद पार्टी हाईकमान लगातार उन्हें पार्टी या सरकार में एडजस्ट करने की कवायद में जुटी रही. कैप्टन अमरिंदर सिंह कैबिनेट में सिद्धू को दोबारा से कैबिनेट में लेने को तैयार थे, लेकिन उन्हें शहरी विकास मंत्रालय की जगह ऊर्जा विभाग ही देना चाहते थे. कैप्टन किसी भी सूरत में सिद्धू को उपमुख्यमंत्री या पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाने के लिए तैयार नहीं थे. वहीं, हाईकमान हर हाल में सिद्धू का कद पंजाब में बढ़ाना चाहती है, लेकिन अमरिंदर सिंह के पर कतर कर नहीं बल्कि भरोसे में लेकर.
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